नमुत्थुणं, अरिहंताणं, भगवंताणं 1 आइ-गराणं, तित्थ-यराणं, सयं-संबुद्धाणं 2 पुरिसुत्तमाणं, पुरिस-सीहाणं, पुरिस-वर-पुंडरीआणं, पुरिस-वर-गंध-हत्थीणं 3 लोगुत्तमाणं, लोग-नाहाणं, लोग-हिआणं, लोग-पईवाणं, लोग-पज्जोअ-गराणं 4 अभय-दयाणं, चक्खु-दयाणं, मग्ग-दयाणं, सरण-दयाणं, बोहि-दयाणं 5 धम्म-दयाणं, धम्म-देसयाणं, धम्म-नायगाणं, धम्म-सारहीणं, धम्म-वर-चाउरंत-चक्कवट्टीणं 6 अप्पडिहय-वर-नाण-दंसण-धराणं, वियट्ट-छउमाणं 7 जिणाणं, जावयाणं, तिन्नाणं, तारयाणं, बुद्धाणं, बोहयाणं, मुत्ताणं, मोअगाणं 8 सव्वन्नूणं, सव्व-दरिसीणं, सिव-मयल-मरुअ-मणंत- मक्खय-मव्वाबाह-मपुणरावित्ति सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमो जिणाणं, जिअ-भयाणं 9 जे अ अईया सिद्धा, जे अ भविस्संति-णागए काले संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे ति-विहेण वंदामि 10 | शक्र इन्द्र जब तीर्थंकर देव की स्तुति करता है तब दाएँ ढींचण उपर करके , पेट उपर करके पेट पर हाथ की कोणी को रखकर , दो हाथ से कमल के डोडा जैसे आकर करके अंजलि करके यह सूत्र बोलते है। इसलिये इस सूत्र का शक्रस्तव नाम भी है। शक्र शब्द का अर्थ इन्द्र होता है। परंतु यहाँ वो सौधर्म देवलोक के अधिपति इन्द्र के लिये है। जब महावीर प्रभु प्राणत नाम के 10वे देवलोक में से च्यवन करके माहणकुंड गांव नगर के ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नि देवानंदा की कुक्षी में अवतरते है तब अवधिज्ञान से वो प्रसंग जानकर अत्यंत खुश होतर सौधरमेन्द्र बहुत भक्तिभाव से अपने सिहांसन पर से उतरते है। जिस दिशा में प्रभु है वो दिशा में 7 - 8 कदम आगे आते है। और बहुत ही भक्तिभाव से यह स्तोत्र से वो प्रभु की स्तुति करते है। इसलिये इसे शक्रस्तव के नाम से भी पहेचाना जाता है। सामायिक क्रिया में जैसे करेमी भंते प्रधान सूत्र है , वैसे चैत्यवंदन की क्रिया में शक्रस्तव - नमुत्थुणं सूत्र प्रधान सूत्र है। यह सूत्र 33 आलापो में है। इसमें शरुआत में अरिहंत भगवान के अलग - अलग 35 विशेषणों द्वारा स्तुति की गई है। बाद में त्रणेय काल के सिद्ध परमात्मा का मोक्ष का स्वरूप बताते पूर्वक स्तुति की गई है। यह सूत्र में 1 गाथा , 9 संपदा , 33 गुरु अक्षर , 264 लघु अक्षर और संपूर्ण अक्षर 297 है। यह शाश्वत सूत्र है। नमोत्थुणं सूत्र (शक्रस्तव)
इस सूत्र का विवेचन करने का अधिकार मुझे, अनुक्रमें, तीसरा, परंतु हाल के समय में, पहला, दूसरा, चौथा और छट्ठा उपधान एक साथ ४७ दिन का उपधान एक साथ करने के बाद, यह दूसरा उपधान ३५ दिन का, करते हुआ, तीन वांचना के अंतर्गत मिला । आज़, मैं, दक्षा मेहता, कोलकाता से, नमुत्थुणं सूत्र के विषय में, जो भी थोड़ा-बहुत समझ पायी हूँ, प्रस्तूत कर रही हूँ।  *दस गाथाओं के नमुत्थुणं सूत्र की शुरुआत होती है, जिसमें, पहली गाथा में, अरिहंत भगवंत को नमस्कार कर के ९ गाथा तक सिर्फ अरिहंत परमात्मा को विशेषण देकर, उनकी स्तुति की जाती है, और यही शक्रेन्द्र भी प्रभु के च्यवन व जन्मकल्याणक के अवसर पर करते आये है, जिस का उल्लेख त्रिषष्ठि सलाका पुरुष में भी है ।* *"""अंतिम दसवीं गाथा में, सभी सिद्धो को, और सर्व तिर्थंकरों को""" त्रिविधे नमस्कार कर के, वर्तमान काल में, यह सूत्र, सम्पन्न होता है ।* *""शाश्वत"" की अपेक्षा से, """नमुत्थुणं की ९ गाथा""" ही शाश्वत है, दसवीं गाथा बाद में जोड़ी गई है, ऐसा मानना है, इसीलिए दूसरे उपधान की तीसरी वांचना में, यह दसवी गाथा की संपदा, पद और गुरु- लघु अक्षर को, पूरे सूत्र की कुल संख्या में नहींं जोड़ा जाता है ।* *नमुत्थुणं सूत्र व अर्थ 
पहली संपदा अर्थ :- *अरिहंत भगवंतो को नमस्कार थाओ ।*
दूसरी संपदा अर्थ :- *धर्म की आदि करनारा, तीर्थ (की स्थापना करनारा), स्वयं बोध पामे हुए, (परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ ।)*
तीसरी संपदा अर्थ :- *पुरुषो में उत्तम, पुरुषो में सिंह समान, पुरुषोमें उत्तम पुंडरीक समान, पुरुषोमें श्रेष्ठ गंधहस्ति समान (परमात्मा को मेरा नमस्कार थाओ ।)* *(उपधान की पहली वांचना समाप्त)*
चौथी संपदा अर्थ :- *लोक में उत्तम, लोक का हित करनारा, लोक को प्रगट करनारा, लोक में प्रकाश करनारा,*
पांचवी संपदा अर्थ :- *अभय को देनारा, श्रद्धारुप चक्षु को देनारा, मार्ग को बतानेवाले, शरण को देने वाले, बोधि (समकित) रत्न को देनेवाले,*
छट्ठी संपदा अर्थ :- *धर्म को देनेवाले, धर्म का उपदेश देनेवाले, धर्म के नायक, धर्म के सारथी, चारों गति के अंत करनारे ( उत्तम धर्मचक्र को धारण करनारे) धर्मचक्रवर्तीओं को (मेरा नमस्कार थाओ ।)* *(उपधान की दूसरी वांचना समाप्त)*
७ संपदा अर्थ :- *कोई भी जिसे ना हण सकें ऐसे उत्तम केवलज्ञान और केवलदर्शन को धारण करनेवाले, छद्मस्थपणा जिनका चला गया है वैसे,*
आठवी संपदा अर्थ :- *रागद्वेष को जिते हुए और जिताने वाले, संसार समुद्र से तिरे हुए और तिराने वाले, (तत्व) बोध पामे हुए और तत्व बोध पमाडने वाले, कर्म को छोड़े हुए और छुड़वाने वाले,*
नौंवी संपदा *तृतीय वांचना में यहां तक के ही, पद, संपदा, गुरु-लघु अक्षर लिये जाते है ।* अर्थ :- *सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, उपद्रवरहित-चलायमान नहींं हो ऐसे रोगरहित अनंतकाल रहेनारे, क्षय नहींं हो ऐसी पीड़ारहित-जहां से वापिस आना नहींं ऐसी एसी सिद्धगति नाम के स्थान को पा लिया हो जिसने, भयों को जिसने जिता है, ऐसे, जिनेश्वर भगवंतो को मैं नमस्कार करता हूँ ।*
दसवी गाथा को संपदा में नहींं गिना जाता है इसीलिए, इसके पद को कुल सूत्र की पद की अपेक्षा से, गिनती में नहींं लिया जाता है।)* अर्थ :- *भूतकाल में जो सिद्ध हो चूके है, उन्हें, भविष्यकाल में जो सिद्ध होंगे उन्हें, और वर्तमान काल में विचर रहें, ऐसे, सर्व तीर्थंकरों को, मन, वचन,काया से, मैं, नमस्कार करता हूँ ।* *कब करते है शक्रेन्द्र, शक्रस्तव की स्तुति और कैसे करते है ?* जब भी प्रभु का *च्यवन या जन्म कल्याणक* होता है, शक्रेन्द्र के *सिंहासन कंपायमान* होते ही उन्हें पता चलता है और वह अपने सिंहासन को, आपनी पादपीठ पादुका वि. को छोड़, जिस तरफ प्रभु है, उस दिशा की और, सात से आठ कदम चलकर, अखण्ड वस्त्र का उतरासंग करते हुए, अपने दक्षिण जानु (बायें घुटने) को आरोपण करके, (सिकोड़कर), और, वामजानु को, (दाहिने घुटने) को भूमि पर टिकाकर *नमुत्थुणं मुद्रा* में, जिसे हम *योगमुद्रा* भी कहते है, और इसी *नमुत्थुणं सूत्र यानी शक्रस्तव के द्वारा, अरिहंत भगवंत के ३६ विशिषणों के साथ, नमुत्थुणं सूत्र, जिसकी ९ गाथा शाश्वत है, वह स्तुति करते है। (दसवीं गाथा को बाद में जोड़ा गया है)*, *त्रिशष्टिसलाका में भी, शक्रस्तव स्तुति करते समय की, अरिहंत प्रभु के विशेषणों की स्तुति का ही वर्णन है ।* उसके बाद अपने मस्तक को भूमि पर लगाकर, तीन बार वंदन करते है और यही भाव तब वह भाते है कि, भगवान को वंदन करता हूँ, वहाँ स्थित भगवान मुझे देखें । *तो ऐसे, नमुत्थुणं सूत्र के माध्यम से, हम भावपूर्वक अरिहंत परमात्मा की विशषणपूर्वक भक्ति करते हुए, नमस्कार करते है ।* *जिनाज्ञा विरुद्ध कुछ भी लिखा गया हो तो मन, वचन, काया से, त्रिविधे, मिच्छामी दुक्कड़ं*।
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